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Abhivyakti #2 मोहन और महात्मा

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We conducted a writing competition on the occasion of Gandhi Jayanti 2020 and asked our participants to pen down their thoughts and opinions. Here are the entries that won our hearts.

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Written By: Anurag Mishra, MA Economics, IIFT Delhi


"आने वाली पीढ़ियां शायद कभी ये विश्वास ही करे की इस प्रवृति का इंसान कभी हांड माँस में हमारे बीच चला था। - अल्बर्ट आइंस्टीन

" मैने उन्हें कभी महात्मा नहीं कहा, वो उस दर्जे के क़ाबिल नहीं थे अपनी खुद की दी हुई नैतिक शिक्षा के आधार पर भी नहीं " - डॉक्टर बाबासाहब अंबडेकर



इस पूरे विश्व में शायद बापू के बारे में सबसे ज़्यादा किताबें पढ़ी लिखी गयी हों, कुछ उनकी महानता की तारीफ़ करते हुए तो कुछ उनकी घोर आलोचना करते हुए, गाँधी जी का जीवन हमेशा एक खुली किताब की तरह रहा है, उनकी जिंदगी का कोई भी पहलु आज हमसे छुपा नहीं है, मगर उसके बाद भी आज हम उनसे कुछ दूर चले गए हैं। मैं शायद विश्वप्रसिद्ध डॉक्टर रामचंद्र गुहा की तरह उनका जीवनी लेखन ना कर सकूँ और उसकी कोशिश करना भी शायद गलत हो, ये लेख केवल आप सभी लोगो के लिए एक ज़रिया है ये जानने का की 21 वि सदी में बापू का क्या महत्व है। ऊपर लिखे हुए विचार गाँधी पर ही हैं दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है और शायद यही गाँधी के जीवन का सार है जहाँ वे पूजे भी जाते हैं और उनकी आलोचना भी खुल कर की जाती है, मगर उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती


बापू को महात्मा का ख़िताब इसलिए मिला क्योंकि वह देश के हर इंसान के दिल में थे उन्होंने देश के हर एक वर्ग चाहे वो गरीब हो या अमीर, हिन्दू हो या मुसलमान सबको एक साथ मिलकर आज़ादी के लिए लड़ने को प्रेरित किया, जो बातें गाँधी को महात्मा बनाती हैं शायद आज उन्हीं बातों ने बापू को एक ऐसे कीर्तिमान पर रख दिया की वो एक आम आदमी की ज़िन्दगी से कुछ दूर हो गए, आज वो सरकारी दफ्तरों और मुद्रा पर तो हैं मगर हमारे दिल में नहीं, मेरा मानना है की यह गलत है। गाँधी साहित्य बहुत विराट है और आम आदमी अगर उन्हें वाकई में समझना चाहता है तो उसे शुरुआत मोहन से करनी चाहिए।

मोहन एक डरपोक बालक था ! स्कूल में ज्यादातर अकेले रहना और छुट्टी होते ही तुरन्त घर भाग आना, रास्ते भर भगवान से ये प्रार्थना करना की वे रास्ते में आने वाले नीम के पेड़ पर रहने वाले भूतों से उसकी रक्षा करें! पढाई लिखाई में फिसड्डी और खेल कूद में भी एकदम निल बटे सन्नाटा। मगर मोहन में ग़ज़ब की जिज्ञासा थी, जिस चीज़ को वह पसंद कर लेता उसके बारे में खूब रूचि से पढता, उनको सीखता और खुद अपने जीवन पर आज़माता, स्कूल कॉलेज की पढाई जैसे तैसे पूरी की मगर मोहन को महात्मा बनाने वाली शिक्षा तो उसे जीवन से ही मिली, लोग अक्सर जीवन में नयी चीज़ें सीखने के लिए प्रयोगशाला जाते हैं, मोहन ने अपने जीवन को ही प्रयोगशाला बना लिया।


जब मोहन साउथ अफ्रीका से भारत वापस आया तो वो 46 वर्ष का हो चूका था। वह जगह जगह जाकर जायज़ा लेने लगा की देश के लोग किस प्रकार की गरीबी और दरिद्रता में जी रहे हैं, चम्पारण सत्याग्रह के शुरू होने से पहले वो एक ऐसी महिला से मिले जो एक काफी मैली साडी पहन कर जी रही थी जब उससे पूछा की वो उससे साफ़ क्यों नहीं करती तो जवाब मिला की उसके पास एक ही साडी है अगर वह उससे धो देगी तो पहनेगी क्या, यह बात सुनकर गांधी जी चौक गए देशवासी इस हालत में जी रहे हैं इसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं करी थी, उस दिन से उन्होंने ने यह फैसला किया की वे खुद उसी तरह अपना जीवन बिताएंगे जिस तरह वे लोग बिताते हैं जिनके लिए वो लड़ रहे हैं। एक संपूर्ण दीवान का बेटा विदेश में सूट बूट पहन कर रहने वाला इंसान अब लंगोट जैसी धोती में रहने लगा ।


कई साल की कठोर लड़ाई के बाद देश को आज़ादी मिली, आज लोगों का मानना यह है की देश को आज़ादी दिलाने में सबसे महत्वपूर्ण योगदान बापू का था, यानी हमारे डरपोक मोहन ने अपने ही मन से नहीं बल्कि समाज के हर तपके के इंसान के मन से डर को निकल फेंका था, मैं आज भी ये सोचता हूँ की आखिर मोहन ने अपने डर को जीता कैसे?


बापू का मानना हमेशा यह था की किसी भी व्यक्ति को अपने विचारों के प्रति कठोर नहीं होना चाहिए विचारों में कठोरपन या स्थिरता इंसान को नयी चीजें आज़माने या उसे स्वीकारने से रोकती हैं। वे समाज को लेकर अपने विचारों में अक्सर सुधार करते थे, साउथ अफ्रीका से निकले गाँधी भारत में रहने वाले बापू से बिलकुल अलग थे, उनके जीवन में ही विचार ऐसे थे जिनका साथ उन्होंने कभी नहीं छोड़ा, सत्य और अहिंसा। वह उनके सबसे बड़े हथियार थे आज कई लोग उनपर यह आरोप लगाते हैं की अहिंसा कभी हथियार नहीं हो सकता वह तो केवल कायर और डरपोक लोगो की निशानी है, इस इलज़ाम के जवाब में मैं आप सभी मित्रों को वसंत और रज़ब की कहानी सुनाना चाहूंगा, वसंत और रज़ब दोनों अहमदाबाद के रहने वाले थे, उन दिनों अहमदाबाद में दंगे चिढ़ गए, वे दोनों भीड़ में घुस कर लोगो को शाँत करने की कोशिश करने लगे, १-२ जगह सफलता प्राप्त भी करी मगर एक भीड़ में हिंसा का शिकार हुए और मारे गए, गाँधी जी ने देश में ऐसे लोगो की फौज खड़ी कर दी थी जो अपनी जान की परवाह किये बिना किसी की भी जान बचाने को तैयार थे, यह काम क्या कोई डरपोक व्यक्ति कर सकता है?


स्वतंत्रता के साथ देश का विभाजन हुआ कई लोग बेघर हुए कई लोग मारे गए, जब दोनों देशों के नेता आज़ादी के जश्न में डूबे हुए थे तब बापू किसी सरकारी समारोह में हिस्सा लेने के बजाय बंगाल के नोआखली में दंगो में पिटे और बेघर हुए लोगो की मदद करने में जुटे हुए थे उन्होंने अपने आखरी दिन इसी तरह लोगो की सेवा करने में बिताये, जब संविधान सभा के सदस्य बाबू जग-जीवन राम बापू के पास उनका आशीर्वाद लेने पहुँचे तो बापू ने उन्हें आशीर्वाद के साथ यह कहा, '' जब कभी अपने आप को शंका में घिरा पाओ तो इस परीक्षा को अपनाना, सबसे दीन हीन गरीब इंसान जो तुमने देखा हो उसका चेहरा याद करना और स्वयं से पूछना जो में करने जा रहा हूँ क्या इससे उसका भला होगा? इस कदम से क्या उसे कुछ मिलेगा या नहीं ? इससे क्या वो अपने जीवन को सुधार पायेगा या नहीं? या यूँ कहो की ऐसे करोड़ो लोग जो अपने जीवन में तन और मन की भूख से तड़प रहे हैं, उन्हें स्वराज्य मिलेगा या नहीं? फिर देखना तुम्हारी सारी शंकाये दूर होजायेंगी ।"


बापू 78 साल के थे जब उनकी हत्या हई, वे मरते दम तक अहिंसा और सत्य पर अड़े रहे। उनका यह कहना था की दुनिया में हिंसा चाहे कितनी भी बलवान क्यों हो जीवन अहिंसा से ही चलता है, क्योंकि अगर हिंसा सबसे बलवान होती तो शायद जीवन कब का ख़त्म हो चूका होता गाँधी जी का जीवन उस सत्य पर आधारित था जो उन्होंने खुद पर प्रयोग कर कर जाना वे लिखी हुई बातों पर विश्वास करने के सख्त खिलाफ थे, उनका कहना था सत्य वही है जिसे आज़माया जा सके। आज हम बापू की 151वी सालगीरा मनाने जा रहे हैं कुछ लोग उनकी मौत का जश्न भी मनाते हैं, उनकी हत्या करने वाले की वीरता के लिए कविताये लिखते हैं, हम सब एक बहुत नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हैं जहा बापू हमारे आस पास ज़रूर हैं मगर हमारे अंदर नहीं, मैं आशा करता हूँ की ये लेख पढ़ कर आप सभी सिर्फ यह नहीं सोचेंगे की एक और नया क्रांतिकारी हमे बापू पर पाठ पढ़ा गया, में इस चीज़ की अपेक्षा करूँगा की इसे पढ़ने वाला हर इंसान अपने जीवन में अपने खुद के प्रयोग करने की सीख ले जिससे वो अपने अपने समाज के भीतर अलग प्रकार के स्वराज्य ला सके।

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Anurag Mishra is a graduate in Economics from the University of Delhi and is currently pursuing Masters in Economics with a Specialisation in Trade and Finance from the Indian Institute of Foreign Trade, New Delhi. He is also the founder of Citizens for effective governance (CEG)

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